मट्टो की साइकिल’। प्रकाश झा अभिनीत इस फ़िल्म को वही लोग देखें जो इस समय में भी कठकरेज न हुए हों। जो अपने मानस पर हथौड़े सा चोट झेलने का माद्दा रखते हों। वह तो ज़रूर देखें जिनके पास आंख होते भी दृष्टि नहीं है।
यह फ़िल्म एक ऐसे परिवार की कथा है कि जहां रोटी का जुगाड़ और बेटी का विवाह एक चुनौती है। रोटी के जुगाड़ में किसी बीमारी का आ जाना हजार कोड़े के दर्द से भी ज्यादा दर्दनाक है। बावजूद इसके इस परिवार में सभी एक दूसरे के दुःख-सुख के साझेदार हैं। वह परिवार जिसकी आवश्यकताएं बेहद सीमित हैं और सब एक दूसरे का भरपूर ख्याल रखते हैं। इस परिवार में गरीबी और बेबसी तो है लेकिन छोटी-छोटी खुशियों में जैसा उल्लास है, वैसा उल्लास बड़े-बड़े अमीरजादों के यहां नहीं दिखता।
यह फ़िल्म समग्रता में कोई सुखांत या दुखांत नाटक नहीं बल्कि इसका हर दृश्य एक कहानी है, जिसमें कसक है, पीड़ा है, चोट है। वह चोट हृदय को बेधती है। इस चोट में हर किसी को अपना चोर चेहरा दिख जायेगा। चाहे मजदूरी गड़प कर जाने वाली बात हो या किसी की मजबूरी देखकर सूदखोरी की अत्यधिक लोलुपता हो या संभव होते हुए भी अपने ही गांव, पड़ोस या परिवार में रहने वाले एक विवश व्यक्ति को सहयोग न कर पाने का भाव हो।
इस फ़िल्म में इक्कीसवीं सदी का वह गांव है, जिसमें गांव की सड़कें टूटी हैं और टूटे लोग और टूटे हैं। देश का विकास, गांव के विकास से और गांव का विकास खेती की ज़मीन की कुर्बानी से ही संभव होता दिखता है। एक्सप्रेस वे के रुपए से गांवों की युवा पीढ़ी कारोबारी बनने के ख़्वाब में शराब और स्मार्टफोन की दुनिया में जिस तरह डूबती उतराती है, यह फ़िल्म उस ओर भी इशारा करती है। उन किशोर युवाओं को भी दिखाती है, जो प्रेम के नाम पर भीतर से बेहद कायर, अकर्मण्य और घटिया मानसिकता से ग्रस्त हैं।
मट्टो की साइकिल राजनीतिक नारों और भाषणों में दिखने वाली साइकिल की तरह सौभाग्यशाली नहीं है। दूसरी ओर मट्टो के गांव का प्रधान उम्मीदवार एक रिटायर्ड फ़ौजी रहता है। चुनाव प्रचार में गांव के विकास का नारा अपने सैनिक होने की ईमानदारी की चासनी में ऐसा फेंटता है कि मट्टो का भी वोट ले लेता है और चुनाव जीतते ही पहले घर, फिर बुलेट, फिर बड़ी गाड़ी लेता है। वह मट्टो की एक अदद साइकिल टूट जाने और बड़ी मुश्किल से ली गई दूसरी साइकिल चोरी हो जाने पर भी कोई मदद नहीं करता, जबकि वही साइकिल उसकी रोजी रोजगार का जरिया होती है।
हालांकि, मट्टो ज़िंदगी की उस ज़मीर में विश्वास रखता है, जिसे हमारे शहर के प्रख्यात गीतकार यश मालवीय गाते हैं,
समय की मार सह लेना/ नहीं रूकना मेरे साथी//…
फिल्म का हर दृश्य इतना बेजोड़, जीवंत, मौलिक तथा प्रकाश झा का अभिनय इतना सशक्त है कि मानो हर दृश्य कोई नगाड़ा हो और मट्टू पाल की भूमिका में प्रकाश झा उसे पूरी शिद्दत से बजा रहें हों। इस फ़िल्म को लेकर प्रकाश झा ने ख़ुद कहा है,
“मैं एक आदमी और उसकी साइकिल की इस सरल कहानी में परतें देख सकता था, जहां एक एक्सप्रेस-वे का निर्माण किया गया है, लेकिन उस एक्सप्रेस-वे के नीचे जीवन एक घोंघे की गति से चलता है। जहां खुश रहने के लिए लोग छोटी-छोटी चीज़ें तलाशते हैं। उनके जीवन में कोई क्रांति, कोई आंदोलन नहीं है। मुझे लगा कि यह फिल्म बननी ही चाहिए”.
प्रकाश झा ने एक बार फिर पूरे साहस के साथ उस विषय को उठाया है, जिसे फिल्मी दुनिया का बड़ा तबका अछूत मानता है या उससे कन्नी काट लेता है। इस फिल्म को मल्टीप्लेक्स में न्यूनतम शुल्क ₹75 में उपलब्ध कराने के लिए भी फिल्म के वित्तीय मामलों से जुड़े लोगों और प्रकाश झा जी का बहुत धन्यवाद।
यह फिल्म बड़ी ही साफ़गोई से मानवीय मूल्यों को जाग्रत करती है और सच्चे मनुष्य होने के अहसास को उद्वेलित करती है।
(डॉ.धीरेंद्र प्रताप सिंह,इलाहाबाद विश्विद्यालय से पी.एच.डी. किये हुए हैं। भूमंडलीकरण व सम सामयिक विषयों पर लिखते हैं और वर्तमान में सीनियर रिसर्च फेलोशिप के अंतर्गत भोजपुरी लोकगीतों पर काम कर रहे)
यह फिल्म समीक्षा लेखक के अपने विचार हैं ……….