हर दौर व हर समय एक जैसा नही होता। अप-डाउन हर जगह होता है। बॉलीवुड की दुनिया में भी ऐसा ही अप-डाउन का दौर चल रहा है। लोग वेब सीरीज के दीवाने होते जा रहे हैं। तमाम लेखक उभर कर आये हैं,जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से उस समाज को दिखाना शुरू किया है,जो मायानगरी मुम्बई के पर्दे पर कुछ दशकों से दिखना बन्द था। हीरो-हेरोइन के रोमांस व नाच कूद से हटकर दूर दराज गांवों व शहरों में घट रही या घट चुकी घटनाओं को दिखाना शुरू किया है और एक बड़ा दर्शक वर्ग इससे खुद को जोड़कर देख रहा है। हाथ-हाथ मे मोबाइल पहुंचने व OTT प्लेटफॉर्म के आने के बाद से लोगों ने थिएटर का रुख कम कर दिया है। तीन सौ-चार सौ खर्च करने के बजाय वो फिल्मों के यू-ट्यूब पर या मार्किट में आने का इंतज़ार कर लेते हैं। इससे फ़िल्म जगत में बन रही व्यवसायिक फिल्मों की कमाई पर बड़ा असर पड़ा है ,जो वर्तमान समय मे साफ़ देखा जा सकता है।
सिनेमा दर्शकों के मन व मस्तिष्क को किडनैप कर लेता है। यह बात इस उदाहरण से समझी जा सकती है कि सिनेमा में बनती फिल्मों से ही बाजार व समाज का भाव बदलता है। लाइफ स्टाइल से लेकर बोलचाल भी फिल्मी होती जा रही। मगर सिनेमा कुछ नया कहाँ परोसता है वो या तो समाज से अडॉप्ट की हुई चीजों पर आधारित कुछ बनाता है या फिर घटी घटनाओं को फिक्शन के साथ प्रस्तुत करता है। हम अपने ही समाज के भूत,वर्तमान और भविष्य को पर्दे पर देखते हैं और स्वीकार करते हैं।
लेकिन किडनैपिंग जैसी घटना में एक नकारात्मकता( नेगेटिविटी) है। और यह नेगेटिविटी दर्शक व प्रस्तुतकर्ता( प्रेजेंटेटर) दोनों के लिए नुकसान होती है। मगर दर्शक वर्ग के मन व दिमाग को किडनैप करने की कला फ़िल्म जगत के निर्माताओं को बखूबी पता है। दर्शक भी कुछ दिन तक किडनैप होकर आनन्द लेता है मगर फिर उसे आज़ादी की छटपटाहट होती है वह आजाद होना चाहता है। वह अपने भविष्य व अपनी दुनिया को देखना चाहता है। इसलिए वो उस ज़ोन से बाहर निकलना चाहता है।
कुछ ऐसा ही हो रहा है इस समय बॉलीवुड में। दर्शक कुछ नया चाहता है। सिनेमा जगत के लोग जब तक इस बात को समझ पाते,वेब और OTT ने झटपट समझ कुछ ऐसा परोसना शुरू कर दिया जो दर्शकों के लिए सुलभ है,सरल है।
जितने पैसे में दर्शक थिएटर की फिल्में देखते थे अब महीने के सब्सक्रिप्शन पर दर्जनों फिल्में व वेब सीरीज देख ले रहे। दर्शक हमेशा खुद के लिए आसान रास्ता खोजता है। उसे एंटरटेनमेंट के साथ साथ अपनी जेब भी देखनी पड़ती है। बढ़ती महंगाई में लोग सम्भल कर चलना चाह रहे हैं।
बड़े बजट से बनी फिल्में दुगुना तिगुना कमा लेना चाहती हैं। वो कमाई पर ज्यादा ध्यान देती हैं। कम बजट में मगर समाज की परेशानियों व उनकी रोजमर्रा की दिक्कतों को केंद्र में रखकर बन रही कम बजट की फिल्में ज्यादा चर्चा में हैं। ऐसे में सिनेमा के दशकों से चले आ रहे नेपोटिज़्म की कमर टूटती दिखाई दे रही है।
देखना ये है कि सुनहरे दौर का सिनेमा जो अपने शतक पूरा कर चुका है वो आज के बढ़ते टेक्निकल युग मे कैसे दर्शकों के बीच अपने महत्व को बचा पायेगा। फिलहाल यह कहना गलत नही होगा कि वेब सीरीज की दुनिया ने फीचर फिल्मों की दुनिया को झकझोरना शुरू कर दिया है। और इसमें दर्शकों का बड़ा योगदान है तभी तो एक तरफ हैशटैग बॉयकॉट चल रहा तो दूसरी ओर ऑडिएंस इस एवरीथिंग …